BA Semester-2 Ancient Indian History and Culture - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - बीए सेमेस्टर-2 प्राचीन भारतीय इतिहात एवं संस्कृति - सरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-2 प्राचीन भारतीय इतिहात एवं संस्कृति

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2723
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-2 प्राचीन भारतीय इतिहात एवं संस्कृति - सरल प्रश्नोत्तर

अध्याय - 9

वाकाटक वंश

(Vakataks Dynasty)

प्रश्न- दक्षिण के वाकाटकों के उत्कर्ष का संक्षिप्त परिचय दीजिए।

अथवा 
वाकाटक कौन थे? वाकाटकों के इतिहास तथा उपलब्धियों का वर्णन कीजिए।
अथवा
वाकाटक कौन थे? वाकाटक राजाओं के जीवन तथा व्यक्तित्व पर प्रकाश डालिए।
अथवा
वाकाटक कौन थे? वाकाटक राजाओं के व्यक्तित्व के विषय पर प्रकाश डालिए।
अथवा
वाकाटक कौन थे? उनके आदि स्थान तथा जाति के विषय में बताइए।
अथवा
वाकाटक वंश पर टिप्पणी लिखिए।

सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. वाकाटकों का आदि निवास स्थान बताइए।
2. वाकाटकों का उदय काल बताइए।
3. प्रवरसेन प्रथम का वर्णन कीजिए।
4. वाकाटक साम्राज्य का विभाजन कीजिए।
5. वाकाटकों की संस्कृति का वर्णन कीजिए।
6. वाकाटक राजवंश के प्रवरसेन II का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
7. वाकाटक वंश पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
8. वाकाटक कौन थे?

उत्तर-

वाकाटक वंश
(Vakataks)

जिस समय उत्तरी भारत में गुप्त वंश शासन कर रहा था उसी समय दक्षिण में वाकाटक नामक राजवंश ख्याति प्राप्त कर रहा था। सन् 225 ई. के लगभग दक्षिण के सातवाहन साम्राज्य का अन्त हो- गया और अमीरों, इक्ष्वाकुओं और चटू शातकर्णियों ने क्रमशः पश्चिमी महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश और दक्षिणी कर्नाटक में स्वतन्त्र राज्यों की स्थापना कर ली। पश्चिमी क्षत्रपों को सातवाहनों और मालवों के उत्कर्ष के फलस्वरूप हानि उठानी पड़ी थी। 225 ई. के लगभग मालवों के नेता श्री सोम ने अपनी स्वतन्त्रता की

घोषणा कर दी और नन्दस्ययूप अभिलेख से पता चलता है कि श्री सोम ने एक व्यष्टि यज्ञ भी किया था। यह यज्ञ क्षत्रपों के विद्रोह को दबाने के लिये किया गया था। इसी समय क्षत्रपों के राज्य में सिंहासन प्राप्त करने के लिए गृहयुद्ध प्रारम्भ हो गया, जिसके फलस्वरूप उनकी शक्ति क्षीण हो गयी। इस प्रकार पश्चिमी भारत के जिन राजवंशों ने तीसरी और छठी शताब्दी में राज्य किया उनमें सबसे अधिक वैभवशाली एक ऐसा राजवंश था, जिसे सबसे गौरवपूर्ण स्थान दिया जाना चाहिए। एक ऐसा राजवंश जिसने सभी को मात कर दिया, जिसने दक्षिण भारत को सबसे महान सभ्यता प्रदान की निर्विवाद रूप से यह वाकाटक राजवंश ही था।

Of all the dynastics of the deccan that have reigned from the third to the sixth century, the most glorious, the one that must be given the place of honour, the one that has excelled all others, the one that had the greatness civilization of the whole of the Deccan is unquestionably the illustrious dynasty of the Vakataks. - Prof. Dubreuil

वाकाटकों का आदि निवास स्थान - वाकाटकों के आदि निवास स्थान के विषय में विभिन्न मत प्रचलित हैं-

1. तीसरी शताब्दी के लेख से ज्ञात होता है कि वाकाटक नामक एक व्यक्ति अमरावती के बौद्ध- स्तूप के दर्शनार्थ गया था, अतः वाकाटकों को आन्ध्र प्रदेश का बतलाया जाता है।

2. कुछ विद्वान पुराणों के आधार पर यह निश्चित करते हैं कि वाकाटक किल-किल प्रदेश से आये थे। किल-किल पन्ना राज्य की एक नदी थी जिससे उन्हें पन्ना प्रदेश का आदि निवासी माना जाता है।

3. कुछ विद्वान उनका सम्बन्ध बुन्देलखण्ड के बिजनौर (बाकार) नामक ग्राम से स्थापित कर उन्हें बुन्देलखण्ड का निवासी बताते हैं।

4. पुराणों में वाकाटकों और विदिशा के नामों का उल्लेख एक साथ हुआ है। इस आधार पर वाकाटकों को विदिशा (पूर्वी मालवा) के आसपास का निवासी माना है।

डा. जायसवाल वाकाटक नामक स्थान को ही वाकाटकों का मूल निवास स्थान बताते हैं। उनका निवास स्थान भूतपूर्व ओरछा राज्य का बगट या बगाट नामक स्थान ही था किन्तु डा. भीराशी इस मत से सहमत नहीं है। वह वाकाटकों को दक्षिण का ही मूल निवासी बतलाते हैं।

वाकाटकों का उदय काल - यह बात सर्वविदित है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय ( 375 ई. से 414 ई.) ने अपनी पुत्री प्रभावती गुप्ता का पाणिग्रहण संस्कार वाकाटक नरेश रुद्रसेन द्वितीय के साथ किया था। 390 ई. के लगभग रुद्रसेन द्वितीय को मृत्यु हो गयी और उसके पुत्र पृथ्वीवेण ने दीर्घकाल तक शासन किया। उसका शासनकाल 350 ई. से 385 ई. तक माना जाता है। इस अभिलेख में लिखा है-

"समुदितस्य वर्ष शतमि वर्धमान कोषदण्ड लाघन सन्तान पुत्र पैत्रित्र"

इससे स्पष्ट होता है कि पृथ्वीषेण के पूर्व उसका वंश 100 वर्ष तक सुख और समृद्धि के साथ शासन कर चुका था। इस अभिलेख के आधार पर यह अनुमान लगाया जाता है कि इस वंश की स्थापना 225 ई. के लगभग विन्ध्य शक्ति ने की थी।

पुराणों के ऐतिहासिक खण्डों में गुप्त राज्य का तो उल्लेख है किन्तु किसी गुप्त राजा का नाम नहीं लिखा है। सम्भवतः यह वर्णन चन्द्रगुप्त द्वितीय की दिग्विजय का है और उनमें उसके पुत्र चन्द्रगुप्त प्रथम का वर्णन किया गया है।

जाति - वाकाटक ब्राह्मण प्रतीत होते हैं। अजन्ता अभिलेख में इसके संस्थापक विन्ध्य शक्ति को 'द्विज' बतलाया गया है। अन्य लेखों से भी स्पष्ट होता है कि वे विवणुबुद्ध गोप के ब्राह्मण थे।

विन्ध्य शक्ति (225 ई. से 275 ई.) - इतिहासकारों का मत है कि विन्ध्य शक्ति के पूर्व बरार में सातवाहनों के सामन्त थे। विन्ध्यं शक्ति ने अवसर पाकर अपने को स्वतंत्र घोषित कर दिया। पुराणों में उसे वाकाटक वंश का संस्थापक बतलाया गया है। इस वंश के एक अभिलेख में उसे वंश केतु कहा गया है। अजन्ता के एक अभिलेख में विन्ध्य शक्ति की बहुत अधिक प्रशंसा की गयी है। उसमें लिखा है कि उसने बड़े-बड़े युद्धों के द्वारा अपनी शक्ति बढ़ायी और वह युद्ध और दान दोनों में असाधारण था। उसकी तुलना इन्द्र और विष्णु से की गयी है। उसके पास एक विशाल अश्व सेनां थी। उसके द्वारा उसने अपने शत्रुओं से लोहा लिया था।

कुछ इतिहासकारों का मत है कि विन्ध्य शक्ति ने अपने स्वतंत्र राज्य का विस्तार करते हुए मालवा को अपने अधीन कर लिया था। पुराणों में इसे विदिशा ( मालवा) और पुरिका (बरार) का शासक बताया है। ऐसा प्रतीत होता है कि उसका प्रारम्भिक नाम कुछ और था परन्तु विन्ध्य प्रदेश के कुछ भागों पर अधिकार करने के पश्चात् वह विन्ध्य शक्ति के नाम से प्रसिद्ध हुआ। पुराणं यह बतलाते हैं कि उसने 96 वर्ष तक राज्य किया परन्तु यह बात अतिशयोक्तिपूर्ण प्रतीत होती है। ऐसा प्रतीत होता है कि 275 ई. के लगभग उसकी मृत्यु हो गयी।

प्रवरसेन प्रथम - विन्ध्य शक्ति के पश्चात् उसका प्रतापी पुत्र प्रवरसेन सिंहासनारूढ़ हुआ। वाकाटक वंश का वह अकेला ऐसा शासक था जिसने 'सम्राट' की उपाधि धारण की थी। इससे उसकी शक्ति और प्रतिष्ठा सूचित होती है। वह बड़ा प्रतिभाशाली राजा था और उसने चार अश्वमेघ यज्ञों के साथ ही अन्य प्रकार के यज्ञ अग्निष्टोम आत्तोमनि, बाजपेय ज्योतिपट भौम, आदि किये थे। यह कार्य तभी सम्भव है जबकि उसने विभिन्न दिशाओं में विजय की हो। उसने अपने समकालीन नाग भार शिववंश के प्रसिद्ध राजा शिवनाग की पुत्री के साथ अपने पुत्र गौतमी पुत्र का विवाह किया था। निस्सन्देह इस सम्बन्ध ने प्रवरसेन की शक्ति को और अधिक बढ़ा दिया होगा।

अभिलेखों से यह भी प्रतीत होता है कि उसने अपने पैतृक राज्य को एक विशाल साम्राज्य में परिवर्तित कर दिया था। पूर्व में बालाघाट तक दक्षिण में दक्षिण बरार तक, उत्तर में हैदराबाद तक के प्रदेश उसके राज्य में सम्मिलित थे। सम्भवतः उसने अपनी राजधानी चानक से हटाकर पुनीक में स्थापित की थी।

" श्री शैलस्थल महात्म्य" नामक ग्रन्थ से यह जानकारी मिलती है कि सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री चन्द्रावती कृष्ण नदी के किनारे बसे हुए "श्री शैल" में मल्लिकार्जुन देवता की पूजा करने जाती थी। कुछ विद्वान चन्द्रावती को गुप्ता ही मानते हैं और यह मत व्यक्त करते हैं कि श्री शैल प्रदेश हैदराबाद का एक वाकाटक नरेश के अधीन था।

इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि बघेलखण्ड में गंज का व्याघ्रराज उत्तरकालीन वाकाटक राजा पृथ्वीषेण (350 ई. से 385 ई.) के अधीन था। परन्तु पृथ्वीषेण ने इस राज्य को कभी भी नहीं जीता था। अतः अवश्य ही यह प्रवरसेन के द्वारा जीता गया होगा। कुछ विद्वानों का मत है कि दक्षिणी कोशल को भी प्रवरसेन ने अपने राज्य में मिला लिया था। विद्वानों का एक वर्ग यह भी मानता है कि प्रवरसेन ने गुजरात और काठियावाड़ के शकों को भी अपने अधीन किया था। उसके राज्य से शकों की मुद्रायें भी प्राप्त हुई हैं।

अतः ऐसा प्रतीत होता है कि प्रवरसेन ने मालवा, बरार, उत्तरी महाराष्ट्र, हैदराबाद काठियावाड़, बघेलखण्ड तथा दक्षिणी कोशल के कुछ भाग पर अधिकार किया था। डॉ. जायसवाल का यह मत है कि * प्रवरसेन ने उत्तरी भारत के कुछ भाग पर अधिकार किया था परन्तु यह उचित नहीं प्रतीत होता, क्योंकि उस समय उत्तरी भारत में गुप्त साम्राज्य पल्लवित हो रहा था और गुप्तों से वाकाटकों के अच्छे सम्बन्ध थे।

वाकाटक साम्राज्य का विभाजन - पुराणों में यह मत व्यक्त किया गया है कि प्रवरसेन के चार पुत्र थे और वे सभी राजा बने। कुछ समय तक पुराणों की इस बात को स्वीकार नहीं किया जाता था परन्तु 1939 ई. में एक ताम्रपत्र प्राप्त हुआ जिससे यह पता चला कि प्रवरसेन का सर्वसेन नाम का एक पुत्र था। प्रो. भीराशी द्वारा संशोधित अजन्ता अभिलेख में भी यही नाम स्पष्ट होता है। सम्भव है कि प्रवरसेन की मृत्यु के पश्चात् वाकाटक साम्राज्य उसके चार पुत्रों जो भिन्न-भिन्न प्रदेशों में गवर्नरों का कार्य कर रहे थे, में विभाजित हो गया था। इसमें से दो राज्यों का प्रमाण अवश्य मिलता है। उसके ज्येष्ठ पुत्र 'गौतमी पुत्र' के उत्तराधिकारियों ने नन्दिवर्धन में दूसरे पुत्र सर्वसेन ने वलगुल्म ( अकोली जिला) में अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया था। शेष दो पुत्रों के विषय में कुछ पता नहीं चलता है और यह अनुमान लगाया जाता है कि थोड़े समय तक वे अवश्य स्वतंत्र रहे परन्तु बाद में उनका राज्य गौतमी शाखा के राज्य में मिल गया।

इस तथ्य से स्पष्ट होता है कि विभाजन के फलस्वरूप वाकाटकों की शक्ति क्षीण हो गई और वे गुप्तों से पीछे रह गये। बाद का कोई भी नरेश सम्राट उपाधि धरण न कर सका। कुछ विद्वानों का मत है कि वाकाटक साम्राज्य का विभाजन न हुआ होता तो उन्हें दक्षिणी भारत में वैसा ही गौरव प्राप्त होता जो उत्तरी भारत में गुप्तों को प्राप्त हुआ।

रुद्रसेन प्रथम (335 ई. से 360 ई.) -  प्रवरसेन का ज्येष्ठ पुत्र गौतमी पुत्र पहले ही मर गया, अतएव प्रवरसेन की मृत्यु के पश्चात् उसका राज्य गौतमी पुत्र के पुत्र रुद्रसेन को मिला। वह एक भारशिव राजकुमारी का पुत्र था। अतः अवश्य ही उसे अपने नाना भारशिव नरेश भावनाग की सहायता प्राप्त हुई होगी। परन्तु इस सम्बन्ध में यह प्रश्न उठता है कि रुद्रसेन प्रथम को अपने नाना की सहायता क्यों लेनी पड़ी क्योंकि उसके तीन अनुभवी चाचा थे। इस सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि हो सकता है कि उसके चाचाओं ने उसका राज्य छीनने का प्रयास किया हो, उसके विरुद्ध रुद्रसेन प्रथम को अपने नाना की सहायता लेन पड़ी हो। उसके एक चाचा सर्वसेन का नाम ही प्राप्त होता है, अन्य दो चाचाओं का नहीं, इससे यह अनुमान लगया जाता है कि रुद्रसेन प्रथम के विरुद्ध युद्ध करते हुए मारे गये थे।

अपने नाना भवनाग से सहायता प्राप्त करने के कारण ही रुद्रसेन प्रथम उसके प्रभाव में आ गया था। उसने अपने वैष्णव धर्म का परित्याग करके नाना के शैवधर्म को स्वीकार कर लिया था। वाकाटक नरेशों के लेखों में उसे महाभैरव का उपासक बतलाया गया है।

इलाहाबाद स्तम्भ लेख में रुद्रसेन का नाम आठ अन्य राजाओं के साथ दिया गया है और इससे अनुमान होता है कि समुद्रगुप्त के द्वारा बनाये गये संगठन का नेता रुद्रसेन प्रथम था। समुद्रगुप्त से पराजित होने के पश्चात उसे शायद कुछ प्रदेशों से हाथ धोना पड़ा था। परन्तु बहुत से विद्वान इस तथ्य को स्वीकार नहीं करते। वे समुद्रगुप्त द्वारा पराजित रुद्रसेन प्रथम को नहीं मानते।

पृथ्वीषेण प्रथम ( 360 ई. से 385 ई.) - रुद्रसेन प्रथम की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र पृथ्वीषेण प्रथम सिंहासनारूढ़ हुआ। वाकाटक लेखों में उसे एक सच्चरित्र और साधु राजा बताया गया है। उसे धर्म विजयी कहकर युधिष्ठिर से उसकी तुलना की गयी है। उसका काल वाकाटक वंश के सुख और समृद्धि का काल था।

नचना और गंजाम अभिलेखों से ज्ञात होता है कि बघेलखण्ड में उसका सामन्त शासक व्याघ्रदेव शासन कर रहा था। कुछ विद्वानों का मत है कि यह पृथ्वीषेण के अधीन नहीं वरन् पृथ्वीषेण द्वितीय के अधीन था। परन्तु यह मत उचित नहीं प्रतीत होता।

1. नचना और गंजाम जिलों के लेखों की लिपि पाँचवीं शताब्दी के अन्तिम चरण की लिपि से बहुत पहले की प्रतीत होती है। जबकि पृथ्वीषेण द्वितीय का शासनकाल पाँचवीं शताब्दी का अंतिम भाग था।

2. पाँचवीं शताब्दी तक बघेलखण्ड पर गुप्तों का राज्य स्थापित हो गया था। इसीलिए पृथ्वीषेण द्वितीय के राज्य की सम्भावना नहीं है। इसीलिए नचना और गंजाम अभिलेखों में दिये गये राजा को पृथ्वीषेण प्रथम मानना ही उचित होगा।

कुछ विद्वान प्रयाग प्रशस्ति में उल्लिखित व्याघ्रराज को ही व्याघ्रराज मानते है। परन्तु यह मत उचित नहीं प्रतीत होता क्योंकि व्याघ्रदेव आर्यावर्त (बुन्देलखण्ड) में राज्य करता था। उसने अपने श्वसुर चन्द्रगुप्त के प्रभाव में आकर अपने कुलागत शैव धर्म को अपना लिया जो चन्द्रगुप्त का धर्म था। उस समय उत्तर भारत में चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य जैसा प्रभावशाली शासक राज्य कर रहा था। उसकी योजना पश्चिमी शकों पर आक्रमण करने की थी और इस योजना में वाकाटक बड़े सहायक हो सकते थे। कदाचित इसी कारण वाकाटकों से अच्छे सम्बन्ध बनाने के लिए चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपनी पुत्री प्रभावती गुप्ता का विवाह वाकाटक नरेश पृथ्वीषेण के पुत्र रुद्रसेन द्वितीय के साथ कर दिया।

रुद्रसेन द्वितीय (385 ई. से 390 ई.) - पृथ्वीषेण के पश्चात् रुद्रसेन द्वितीय सिंहासनारूढ़ हुआ। उसका विवाह चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती गुप्ता से हुआ था। उसने अपने श्वशुर चन्द्रगुप्त के प्रभाव में आकर अपने कुलागत शैव धर्म को त्यागकर वैष्णव धर्म अपना लिया, जो चन्द्रगुप्त का धर्म था। अतएव वाकाटकों और गुप्तों में बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हो गया था। वाकाटक गुप्तों के प्रभाव में आ गये थे और यही कारण है कि अनेक वाकाटक लेखों में गुप्तों के नाम मिलते हैं।

रुद्रसेन द्वितीय ने अधिक दिनों तक शासन नहीं किया और 390 ई. के लगभग उसकी मृत्यु हो गयी। इस प्रकार उसका शासन लगभग 5 वर्ष रहा।

प्रभावती गुप्ता (390 ई. से 410 ई.) - अपने पति रुद्रसेन की मृत्यु के पश्चात् प्रभावती गुप्ता पर अपने अल्पवयस्क पुत्र दिवाकर सेन और दामोदर सेन के पालन-पोषण के साथ ही राज्य की रक्षा करने का कठिन भार आ गया। रुद्रसेन द्वितीयं की मृत्यु के समय दिवाकर सेन की आयु 5 वर्ष और दामोदर सेन की आयु 2 वर्ष थी, इससे प्रभावती गुप्ता को शासन की बागडोर अपने हाथ में लेनी पड़ी। शासन को सुचारु रूप से चलाने के लिए अवश्य ही उसने अपने शक्तिशाली पिता चन्द्रगुप्त द्वितीय की सहायता प्राप्त की होगी। यही कारण है कि प्रभावती गुप्ता के ताम्रपत्रों में वाकाटक वंशावली के साथ ही गुप्त वंशावली भी प्राप्त हुई है और ताम्रपत्रों की लिपि भी गुप्त लिपि है।

कुछ विद्वानों का मत है कि यह ताम्रपत्र उन गुप्त अधिकारियों के द्वारा लिखा गया था जो वाकाटक राज्य में रहते थे। यह भी कहा जाता है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपने दोहित्रों की शिक्षा के लिए कालिदास जैसे प्रसिद्ध विद्वान को वाकाटक राज्य में भेजा था। प्रवरसेन द्वितीय (दामोदर सेन) ने सेतुबंध नामक काव्य का सृजन किया था जिसका संशोधन स्वयं कालिदास ने किया था।

प्रभावती गुप्ता के शासनकाल में ही चन्द्रगुप्त द्वितीय ने शकों पर आक्रमण करके उन्हें पराजित किया था। शकों की पराजय के फलस्वरूप गुजरात और काठियावाड़ के प्रदेश साम्राज्य के अन्तर्गत आ गये थे। इस युद्ध में अवश्य ही प्रभावती गुप्ता ने अपने पिता की सहायता ली होगी।

प्रभावती गुप्ता के संरक्षण काल में ही दिवाकर सेन की मृत्यु हो गयी और वयस्क होने पर उसका छोटा पुत्र दामोदर सेन वाकाटक वंश का राजा हुआ।

प्रवरसेन द्वितीय ( 410 ई. से 440 ई.) - 410 ई. के लगभग प्रभावती गुप्ता का द्वितीय पुत्र दामोदर प्रवरसेन द्वितीय के नाम से वाकाटक वंश की गद्दी पर बैठा। यद्यपि उसने नये स्थानों को नहीं जीता परन्तु अपने पैतृक राज्य की रक्षा करने में वह पूर्ण रूप से सफल हुआ। उसने अनेक खेत और ग्राम दान में दिये। एक ताम्रपत्र अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसने एक नये नगर 'प्रवरपुर' की स्थापना की। कुछ विद्वानों का मत है कि उसने प्राचीन राजधानी नन्दिवर्धन का परित्याग करके इसी स्थान पर अपनी राजधानी स्थापित की, वह शैवधर्म का अनुयायी था। उसने कदम्ब वंश के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध रखने के लिये अपने पुत्र नरेन्द्रसेन का विवाह कादम्ब नरेश की पुत्री अजित भट्टारिका के साथ किया।

नरेन्द्रसेन ( 440 ई. से 460 ई.) - प्रवरसेन द्वितीय की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र नरेन्द्रसेन राजा बना। अजन्ता की गुफा सं. 16 के एक लेख के आधार पर पहले कुछ विद्वान यह मत प्रकट करते थे कि प्रवरसेन द्वितीय की मृत्यु के पश्चात् वाकाटक राजकुमारों में गद्दी के लिए युद्ध हुआ और इस युद्ध में नरेन्द्रसेन की विजय हुई परन्तु आधुनिक विद्वान इस लेख का यह अर्थ नहीं निकालते। नरेन्द्रसेन ने अक्रामक नीति को अपनाया। सिंहासनारूढ़ होते ही उसे नलनरेश भवदत्त वर्मन के आक्रमण का सामना करना पड़ा। भवदत्त वर्मन की मृत्यु के पश्चात् नरेन्द्रसेन ने उसके उत्तराधिकारी अर्धपति को पराजित किया। शायद कदम्ब वंश ने भी उस युद्ध में नरेन्द्रसेन की सहायता की। कुछ अभिलेखों से पता चलता है कि उसने कुछ शत्रुओं को पराजित किया था और उसके आदेशों का सम्मान कोशल, मेकल और मालवा के शासक करते थे। हो सकता है कि स्कन्दगुप्त की प्रारम्भिक कठिनाइयों का लाभ उठाकर नरेन्द्रसेन ने मालवा पर अधिकार कर लिया हो परन्तु उसका अधिकार अल्पकालीन ही रहा होगा क्योंकि स्कन्दगुप्त ने मालवा को जीत लिया था। यह भी हो सकता है कि बस्तर से नल राज्य को पराजित करने के पश्चात् - नरेन्द्रसेन ने उसके पड़ोसी राज्यों मेकल और कोशल पर भी अपना अधिकार कर लिया हो।

पृथ्वीसेन द्वितीय (460 ई. से 480 ई.) - नरेन्द्रसेन के पश्चात् उसका पुत्र पृथ्वीसेन द्वितीय सिंहासनारूढ़ हुआ। कुछ अभिलेखों में उसे वंश के खोये हुये भाग्य बनाने वाला कहा गया है, उसे अनेक शत्रुओं का सामना करना पड़ा और यह शत्रु सम्भवतः नल त्रैकूट वंश के थे। प्रो. मिराशी के अनुसार पृथ्वीसेन ने पद्मपुर को अपनी राजधानी बनाया. उसने बस्तर राज्य के नलवंश को परास्त किया ओर पूर्व में अपनी स्थिति सुदृढ़ बनायी।

हरिषेण (475 ई. से 510 ई.) - शायद पृथ्वीषेण द्वितीय का कोई पुत्र न था, वह वाकाटकों की शाखा का अन्तिम था। उसकी मृत्यु के पश्चात् उसका राज्य पश्चिम की वाकाटक उपशाखों के हाथ में चला गया। इस उपशाखा की स्थापना पृथ्वीषेण प्रथम के पुत्र सर्वसेन ने की थी, तब से यह शाखा मूल शाखा के साथ ही शासन करती चली आ रही थी। पृथ्वीषेण द्वितीय की मृत्यु के समय इस शाखा का राजा हरिषेण पृथ्वीषेण के कोई पुत्र न होने के कारण उसकी शाखा का राजा बना, हरिषेण एक वीर राजा था, अजन्ता के अभिलेख से पता चलता है कि उसने दक्षिण कौशल, गुजरात मालवा, आन्ध्र प्रदेश और कुन्तल के प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। गुजरात को उसने प्रवरसेन के किसी उत्तराधिकारी से छीना होगा और मालवा को हस्तगत करने के लिए वर्मन वंश के किसी नरेश को पराजित किया होगा, दक्षिण कौशल के नलों को उसने नतमस्तक करने के लिए बाध्य किया, आन्ध्र नरेश विक्रमेन्द्र ने हरिषेण से मित्रता की थी और अपने पुत्र माधववर्मन का विवाह वाकाटक राजकुमारी के साथ किया था, कुन्तल के कदम्ब वंश को भी उसने प्रभावित किया था।

गुजरात महाराष्ट्र, उत्तरी कौशल और आन्ध्र प्रदेश तक विस्तृत था, उसके राज्य की सीमायें उत्तर में मालवा से लेकर दक्षिण में कुन्तल तक और पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्चिम में अरब सागर तक थीं, वाराहदेव नाम का उसका सुयोग्य मन्त्री था, अजन्ता की कुछ गुफाओं को खुदवाने का श्रेय इसी वाराहदेव को प्राप्त है और हरिषेण के राज्य में वाकाटक साम्राज्य अपनी उन्नति की चरम सीमा पर पहुँच गया था।

वाकाटकों की संस्कृति - धर्म, कला और साहित्य के क्षेत्र में वाकाटकों ने विशेष उन्नति की। वाकाटक वंश के सभी राजा कट्टर हिन्दू थे। उनमें से अधिकतर शिव के अनन्य भक्त थे और उन्होंने माहेश्वर तथा महाभैरव की उपाधि धारण की थी। वाकाटक वंश के राजाओं में चन्द्रगुप्त द्वितीय का दामाद रुद्रसेन द्वितीय विष्णु का उपासक था, वाकाटक राजाओं ने विभिन्न प्रकार के यज्ञों का सम्पादन किया था। प्रवरसेन ने सती यज्ञ करने के साथ ही चार अश्वमेघ यज्ञ किये थे। इस वंश के शासकों ने विद्वानों तथा ब्राह्मणों को बहुत अधिक दान दिया और शिव मन्दिर बनवाये।

वाकाटक शासकों ने केवल विद्वानों को ही संरक्षण नहीं दिया वरन् स्वयं भी लेखनी चलाई। सर्वसेन ने 'हरिविजय' नामक प्राकृत काव्य का सृजन किया, साथ ही उसने कुछ गाथायें लिखी थीं। वह महाराष्ट्रीय लिपि में लिखे गये 'सेतुबन्ध' काव्य का भी प्रणेता था, जो 'रावणवहो' के नाम से प्रसिद्ध था। दण्डी ने सेतुबन्ध काव्य को कहावतों की दृष्टि से हीरों की खान कहा है। कुछ विद्वानों का मत है कि कुछ समय तक कालिदास, प्रवरसेन द्वितीय के दरबार में रहा और उसने 'मेघदूत' नामक ग्रन्थ की रचना वहीं की। चित्रकला, मूर्तिकला और शिल्पकला के संरक्षकों के समय में वाकाटक राजा सदैव याद किये जायेंगे। आज भी तिगवा और नचना के मन्दिर अच्छी स्थिति में देखे जा सकतें हैं। तिगवा के मन्दिर के बरामदे इण्डो- पर्सपोलिटान शैली के बने हुए हैं तथा दो आधे बैठे शेरों की मूर्ति एक पेड़ के दोनों ओर बनी है। मन्दिर में गंगा-यमुना की भी सुन्दर मूर्तियाँ हैं नचना के मन्दिर को बनवाने का श्रेय एक सामन्त व्याघ्रदेव को है।

इस प्रकार कहा जाता है कि उसका राज्य करार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हैदराबाद, मालवा, अजन्ता की गुफाओं में कुछ वाकाटक काल की हैं, विहार गुफा नं. 16 को बनवाने का श्रेय हरिषेण के मन्त्री वाराहदेव को है, इस गुफा में धर्म चक्र प्रवर्तन मुद्रा में महात्मा बुद्ध की एक बड़ी सी मूर्ति है इस गुफा में मृत्य शैयाशीन राजकुमारी का चित्र अत्यन्त सुन्दर है। विहार गुफा नं. 17 भी वाकाटक काल की है। यह भी विहार गुफा नं. 16 की भांति है। चैत्य गुफा नं. 19 भी इसी युग की है। इस गुफा की मूर्तिकला दर्शनीय है। फर्गुसन ने इस गुफा की बौद्धकला का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण बतलाया है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि चैत्यों के समकालीन वाकाटकों ने सांस्कृतिक क्षेत्र में अत्यधिक उन्नति की थी और इसी प्रकार उस युग में उत्तरी दक्षिणी भारत में सांस्कृतिक चेतना की लहर उत्पन्न हुई जिसने उस युग को भारतीय स्वर्णयुग बना दिया।.

 

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- प्राचीन भारतीय इतिहास को समझने हेतु उपयोगी स्रोतों का वर्णन कीजिए।
  2. प्रश्न- प्राचीन भारत के इतिहास को जानने में विदेशी यात्रियों / लेखकों के विवरण की क्या भूमिका है? स्पष्ट कीजिए।
  3. प्रश्न- प्राचीन भारत के इतिहास के पुरातात्विक स्रोतों की सुस्पष्ट जानकारी दीजिये।
  4. प्रश्न- प्राचीन भारतीय इतिहास के विषय में आप क्या जानते हैं?
  5. प्रश्न- भास की कृति "स्वप्नवासवदत्ता" पर एक लेख लिखिए।
  6. प्रश्न- 'फाह्यान' पर एक संक्षिप्त लेख लिखिए।
  7. प्रश्न- दारा प्रथम तथा उसके तीन महत्वपूर्ण अभिलेख के विषय में बताइए।
  8. प्रश्न- आपके विषय का पूरा नाम क्या है? आपके इस प्रश्नपत्र का क्या नाम है?
  9. वस्तुनिष्ठ प्रश्न - प्राचीन इतिहास अध्ययन के स्रोत
  10. उत्तरमाला
  11. प्रश्न- बिम्बिसार के समय से नन्द वंश के काल तक मगध की शक्ति के विकास का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
  12. प्रश्न- नन्द कौन थे महापद्मनन्द के जीवन तथा उपलब्धियों का उल्लेख कीजिए।
  13. प्रश्न- छठी सदी ईसा पूर्व में गणराज्यों का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
  14. प्रश्न- छठी शताब्दी ई. पू. में महाजनपदीय एवं गणराज्यों की शासन प्रणाली के अन्तर को स्पष्ट कीजिए।
  15. प्रश्न- बिम्बिसार की राज्यनीति का वर्णन कीजिए तथा परिचय दीजिए।
  16. प्रश्न- उदयिन के जीवन पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  17. प्रश्न- नन्द साम्राज्य की विशालता का वर्णन कीजिए।
  18. प्रश्न- धननंद और कौटिल्य के सम्बन्ध का उल्लेख कीजिए।
  19. प्रश्न- धननंद के विषय में आप क्या जानते हैं?
  20. प्रश्न- मगध की भौगोलिक सीमाओं को स्पष्ट कीजिए।
  21. प्रश्न- गणराज्य किसे कहते हैं?
  22. वस्तुनिष्ठ प्रश्न - महाजनपद एवं गणतन्त्र का विकास
  23. उत्तरमाला
  24. प्रश्न- मौर्य कौन थे? इस वंश के इतिहास जानने के स्रोतों का उल्लेख कीजिए तथा महत्व पर प्रकाश डालिए।
  25. प्रश्न- चन्द्रगुप्त मौर्य के विषय में आप क्या जानते हैं? उसकी उपलब्धियों और शासन व्यवस्था पर निबन्ध लिखिए|
  26. प्रश्न- सम्राट बिन्दुसार का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  27. प्रश्न- कौटिल्य और मेगस्थनीज के विषय में आप क्या जानते हैं?
  28. प्रश्न- मौर्यकाल में सम्राटों के साम्राज्य विस्तार की सीमाओं को स्पष्ट कीजिए।
  29. प्रश्न- सम्राट के धम्म के विशिष्ट तत्वों का निरूपण कीजिए।
  30. प्रश्न- भारतीय इतिहास में अशोक एक महान सम्राट कहलाता है। यह कथन कहाँ तक सत्य है? प्रकाश डालिए।
  31. प्रश्न- मौर्य साम्राज्य के पतन के कारणों को स्पष्ट कीजिए।
  32. प्रश्न- मौर्य वंश के पतन के लिए अशोक कहाँ तक उत्तरदायी था?
  33. प्रश्न- चन्द्रगुप्त मौर्य के बचपन का वर्णन कीजिए।
  34. प्रश्न- अशोक ने धर्म प्रचार के क्या उपाय किये थे? स्पष्ट कीजिए।
  35. वस्तुनिष्ठ प्रश्न - मौर्य साम्राज्य
  36. उत्तरमाला
  37. प्रश्न- शुंग कौन थे? पुष्यमित्र का शासन प्रबन्ध लिखिये।
  38. प्रश्न- कण्व या कण्वायन वंश को स्पष्ट कीजिए।
  39. प्रश्न- पुष्यमित्र शुंग की धार्मिक नीति की विवेचना कीजिए।
  40. प्रश्न- पतंजलि कौन थे?
  41. प्रश्न- शुंग काल की साहित्यिक एवं कलात्मक उपलब्धियों का वर्णन कीजिए।
  42. वस्तुनिष्ठ प्रश्न - शुंग तथा कण्व वंश
  43. उत्तरमाला
  44. प्रश्न- सातवाहन युगीन दक्कन पर प्रकाश डालिए।
  45. प्रश्न- आन्ध्र-सातवाहन कौन थे? गौतमी पुत्र शातकर्णी के राज्य की घटनाओं का उल्लेख कीजिए।
  46. प्रश्न- शक सातवाहन संघर्ष के विषय में बताइए।
  47. प्रश्न- जूनागढ़ अभिलेख के माध्यम से रुद्रदामन के जीवन तथा व्यक्तित्व पर प्रकाश डालिए।
  48. प्रश्न- शकों के विषय में आप क्या जानते हैं?
  49. प्रश्न- नहपान कौन था?
  50. प्रश्न- शक शासक रुद्रदामन के विषय में बताइए।
  51. प्रश्न- मिहिरभोज के विषय में बताइए।
  52. वस्तुनिष्ठ प्रश्न - सातवाहन वंश
  53. उत्तरमाला
  54. प्रश्न- कलिंग नरेश खारवेल के इतिहास पर प्रकाश डालिए।
  55. प्रश्न- कलिंगराज खारवेल की उपलब्धियों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
  56. वस्तुनिष्ठ प्रश्न - कलिंग नरेश खारवेल
  57. उत्तरमाला
  58. प्रश्न- हिन्द-यवन शक्ति के उत्थान एवं पतन का निरूपण कीजिए।
  59. प्रश्न- मिनेण्डर कौन था? उसकी विजयों तथा उपलब्धियों पर चर्चा कीजिए।
  60. प्रश्न- एक विजेता के रूप में डेमेट्रियस की प्रमुख उपलब्धियों की विवेचना कीजिए।
  61. प्रश्न- हिन्द पहलवों के बारे में आप क्या जानते है? बताइए।
  62. प्रश्न- कुषाणों के भारत में शासन पर एक निबन्ध लिखिए।
  63. प्रश्न- कनिष्क के उत्तराधिकारियों का परिचय देते हुए यह बताइए कि कुषाण वंश के पतन के क्या कारण थे?
  64. प्रश्न- हिन्द-यवन स्वर्ण सिक्के पर प्रकाश डालिए।
  65. वस्तुनिष्ठ प्रश्न - भारत में विदेशी आक्रमण
  66. उत्तरमाला
  67. प्रश्न- गुप्तों की उत्पत्ति के विषय में आप क्या जानते हैं? विस्तृत विवेचन कीजिए।
  68. प्रश्न- काचगुप्त कौन थे? स्पष्ट कीजिए।
  69. प्रश्न- प्रयाग प्रशस्ति के आधार पर समुद्रगुप्त की विजयों का उल्लेख कीजिए।
  70. प्रश्न- चन्द्रगुप्त (द्वितीय) की उपलब्धियों के बारे में विस्तार से लिखिए।
  71. प्रश्न- गुप्त शासन प्रणाली पर एक विस्तृत लेख लिखिए।
  72. प्रश्न- गुप्तकाल की साहित्यिक एवं कलात्मक उपलब्धियों का वर्णन कीजिए।
  73. प्रश्न- गुप्तों के पतन का विस्तार से वर्णन कीजिए।
  74. प्रश्न- गुप्तों के काल को प्राचीन भारत का 'स्वर्ण युग' क्यों कहते हैं? विवेचना कीजिए।
  75. प्रश्न- रामगुप्त की ऐतिहासिकता पर विचार व्यक्त कीजिए।
  76. प्रश्न- गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के विषय में बताइए।
  77. प्रश्न- आर्यभट्ट कौन था? वर्णन कीजिए।
  78. प्रश्न- स्कन्दगुप्त की उपलब्धियों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
  79. प्रश्न- राजा के रूप में स्कन्दगुप्त के महत्व की विवेचना कीजिए।
  80. प्रश्न- कुमारगुप्त पर संक्षेप में टिप्पणी लिखिए।
  81. प्रश्न- कुमारगुप्त प्रथम की उपलब्धियों पर प्रकाश डालिए।
  82. प्रश्न- गुप्तकालीन भारत के सांस्कृतिक पुनरुत्थान पर प्रकाश डालिए।
  83. प्रश्न- कालिदास पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  84. प्रश्न- विशाखदत्त कौन था? वर्णन कीजिए।
  85. प्रश्न- स्कन्दगुप्त कौन था?
  86. प्रश्न- जूनागढ़ अभिलेख से किस राजा के विषय में जानकारी मिलती है? उसके विषय में आप सूक्ष्म में बताइए।
  87. वस्तुनिष्ठ प्रश्न - गुप्त वंश
  88. उत्तरमाला
  89. प्रश्न- दक्षिण के वाकाटकों के उत्कर्ष का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  90. वस्तुनिष्ठ प्रश्न - वाकाटक वंश
  91. उत्तरमाला
  92. प्रश्न- हूण कौन थे? तोरमाण के जीवन तथा उपलब्धियों का उल्लेख कीजिए।
  93. प्रश्न- हूण आक्रमण के भारत पर क्या प्रभाव पड़े? स्पष्ट कीजिए।
  94. प्रश्न- गुप्त साम्राज्य पर हूणों के आक्रमण का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
  95. वस्तुनिष्ठ प्रश्न - हूण आक्रमण
  96. उत्तरमाला
  97. प्रश्न- हर्ष के समकालीन गौड़ नरेश शशांक के विषय में आप क्या जानते हैं? स्पष्ट कीजिए।
  98. प्रश्न- हर्ष का समकालीन शासक शशांक के साथ क्या सम्बन्ध था? मूल्यांकन कीजिए।
  99. प्रश्न- हर्ष की सामरिक उपलब्धियों के परिप्रेक्ष्य में उसका मूल्यांकन कीजिए।
  100. प्रश्न- सम्राट के रूप में हर्ष का मूल्यांकन कीजिए।
  101. प्रश्न- हर्षवर्धन की सांस्कृतिक उपलब्धियों का वर्णन कीजिये?
  102. प्रश्न- हर्ष का मूल्यांकन पर टिप्पणी कीजिये।
  103. प्रश्न- हर्ष का धर्म पर टिप्पणी कीजिये।
  104. प्रश्न- पुलकेशिन द्वितीय पर टिप्पणी कीजिये।
  105. प्रश्न- ह्वेनसांग कौन था?
  106. प्रश्न- प्रभाकर वर्धन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये।
  107. प्रश्न- गौड़ पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  108. वस्तुनिष्ठ प्रश्न - वर्धन वंश
  109. उत्तरमाला
  110. प्रश्न- मौखरी वंश की उत्पत्ति के विषय में बताते हुए इस वंश के प्रमुख शासकों का उल्लेख कीजिए।
  111. प्रश्न- मौखरी कौन थे? मौखरी राजाओं के जीवन तथा उपलब्धियों पर प्रकाश डालिए।
  112. प्रश्न- मौखरी वंश का इतिहास जानने के साधनों का वर्णन कीजिए।
  113. वस्तुनिष्ठ प्रश्न - मौखरी वंश
  114. उत्तरमाला
  115. प्रष्न- परवर्ती गुप्त शासकों का राजनैतिक इतिहास बताइये।
  116. प्रश्न- परवर्ती गुप्त शासकों के मौखरी शासकों से किस प्रकार के सम्बन्ध थे? स्पष्ट कीजिए।
  117. प्रश्न- परवर्ती गुप्तों के इतिहास पर टिप्पणी लिखिए।
  118. प्रश्न- परवर्ती गुप्त शासक नरसिंहगुप्त 'बालादित्य' के विषय में बताइये।
  119. वस्तुनिष्ठ प्रश्न - परवर्ती गुप्त शासक
  120. उत्तरमाला

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